"गुरु अमृत है जगत में, बाकी सब विषबेल,
सतगुरु संत अनंत हैं, प्रभु से कर दें मेल। गुरुग्राम(हरियाणा), गुरुपूर्णिमा विशेष: हमारे जीवन में गुरु का विशेष महत्व होता है। भारतीय संस्कृति में गुरु को भगवान से भी बढ़कर माना जाता है। संस्कृत में ‘गु’ का अर्थ होता है अंधकार (अज्ञान) एवं ‘रु’ का अर्थ होता है प्रकाश (ज्ञान)। गुरु हमें अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाते हैं।
गुरु को महत्व देने के लिए ही महान गुरु वेद व्यासजी की जयंती पर गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। इसी दिन भगवान शिव द्वारा अपने शिष्यों को ज्ञान दिया गया था। इस दिन कई महान गुरुओं का जन्म भी हुआ था और बहुतों को ज्ञान की प्राप्ति भी हुई थी। इसी दिन गौतम बुद्ध ने धर्मचक्र प्रवर्तन किया था।
आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन गुरु पूर्णिमा का उत्सव मनाया जाता है।
माता और पिता अपने बच्चों को संस्कार देते हैं, पर गुरु सभी को अपने बच्चों के समान मानकर ज्ञान देते हैं।
गुरु और शिक्षकों का सम्मान करना हमारा कर्तव्य है। एक विद्यार्थी के जीवन में गुरु अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। गुरु के ज्ञान और संस्कार के आधार पर ही उसका शिष्य ज्ञानी बनता है। गुरु की महत्ता को महत्व देते हुए प्राचीन धर्मग्रन्थों में भी गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समान बताया है। एक व्यक्ति गुरु का ऋण कभी नहीं चूका पाता है।
गुरु मंदबुद्धि शिष्य को भी एक योग्य व्यक्ति बना देते हैं। संस्कार और शिक्षा जीवन का मूल स्वभाव होता है।
गुरु के ज्ञान का कोई तोल नहीं होता है। हमारा जीवन गुरु के अभाव में शून्य होता है। गुरु अपने शिष्यों से कोई स्वार्थ नहीं रखते हैं, उनका उद्देश्य सभी का कल्याण ही होता है। गुरु को उस दिन अपने कार्यो पर गर्व होता है, जिस दिन उसका शिष्य एक बड़े ओदे पर पहुंच जाता है।
प्राचीनकाल से ही भारत में गुरु और शिष्य की परंपरा रही है। भगवान शिव के बाद गुरु दत्तात्रेय को सबसे बड़ा गुरु माना गया है। इसके बाद देवताओं के पहले गुरु अंगिरा ऋषि थे। उसके बाद अंगिरा के पुत्र बृहस्पति गुरु बने। उसके बाद बृहस्पति के पुत्र भारद्वाज गुरु बने थे। इसके अलावा हर देवता किसी न किसी का गुरु रहा है। सभी असुरों के गुरु का नाम शुक्राचार्य हैं। शुक्राचार्य से पूर्व महर्षि भृगु असुरों के गुरु थे। कई महान असुर हुए हैं जो किसी न किसी के गुरु रहे हैं।
महाभारत काल में गुरु द्रोणाचार्य एकलव्य, कौरव और पांडवों के गुरु थे। परशुरामजी कर्ण के गुरु थे। इसी तरह किसी ना किसी योद्धा का कोई ना कोई गुरु होता था। वेद व्यास, गर्ग मुनि, सांदीपनि, दुर्वासा आदि। चाणक्य के गुरु उनके पिता चणक थे। महान सम्राट चंद्रगुप्त के गुरु आचार्य चाणक्य थे। चाणक्य के काल में कई महान गुरु हुए हैं। ऐसा कहा जाता है कि महावतार बाबा ने आदिशंकराचार्य को क्रिया योग की शिक्षा दी थी और बाद में उन्होंने संत कबीर को भी दीक्षा दी थी। इसके बाद प्रसिद्ध संत लाहिड़ी महाशय को उनका शिष्य बताया जाता है। नवनाथों के महान गुरु गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे जिन्हें 84 सिद्धों का गुरु माना जाता है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि उपनयन संस्कार के बाद विद्यार्थी का दूसरा जन्म होता है। इसीलिए उसे द्विज कहा जाता है। शिक्षापूर्ण होने तक गायत्री उसकी माता तथा आचार्य उसका पिता होता है।
गुरु पूर्णिमा का दिन गुरु और शिष्य को समर्पित होता है। इस दिन पवित्र नदियों में स्नान कर पितरों को जल और तर्पण भी किया जाता है। आइए जानते हैं गुरु पूर्णिमा का क
गुरु अपने शिष्य के भीतर असीम संभावनाओं के द्वार खोल देता है। इससे व्यक्ति अपनी सीमाओं को पार कर अनंत ब्रह्मांड का अंग बन जाता है। सभी के जीवन में गुरु अवश्य होना चाहिए। जिनके जीवन में गुरु नहीं है, उनको श्रद्धा भाव से गुरु खोजना चाहिए। गुरु मिलने पर नतमस्तक होकर अपना अहंकार उनके चरणों में रख देना चाहिए। गुरु के प्रति समर्पित होते ही गुरु तत्व, गुरु कृपा, गुरु ऊर्जा, गुरु स्पर्श और गुरु वाणी शिष्य के भीतर बहनी आरंभ हो जाती है। जब भी गुरु के सामने जाएं, तब धन, कुटुंब, मान-सम्मान या बड़े पद-प्रतिष्ठा वाले बनकर ना जाएं। केवल श्रद्धा भाव से गुरु के प्रति नतमस्तक हो जाएं।
गुरु कोई शरीर नहीं, एक तत्व है जो पूरे ब्रह्मांड में विद्यमान है। मेरा गुरु या तेरा गुरु शरीर के स्तर पर अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन गुरु तत्त्व तो एक ही है। गुरु और शिष्य का संबंध शरीर से परे आत्मिक होता है। गुरु पूर्णिमा गुरु से दीक्षा लेने, साधना को मजबूत करने और अपने भीतर गुरु को अनुभव करने का दिन है। गुरु को याद करने से हमारे विकार वैसे ही दूर होते हैं जैसे प्रकाश के होने पर अंधेरा दूर हो जाता है। चित्त में पड़े अंधकार को मिटाने वाला कोई और नहीं, बल्कि गुरु ही होते हैं। गुरु ही हैं जो जीना सिखाते हैं और मुक्ति की राह दिखाते हैं।
कहते हैं ‘हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर,’ अर्थात हरि के रूठने पर तो गुरु की शरण मिल जाती है, लेकिन गुरु के रूठने पर कहीं भी शरण नहीं मिल पाती। गुरु महिमा में कहा है, गुरुर्देवो गुरुर्धर्मो, गुरौ निष्ठा परं तपः। गुरोः परतरं नास्ति, त्रिवारं कथयामि ते। यानी गुरु ही देव हैं, गुरु ही धर्म हैं, गुरु में निष्ठा ही परम धर्म है। गुरु से अधिक और कुछ नहीं है। भगवान विष्णु का अवतार होने के बाद भी कृष्ण गुरु सांदीपनि से शिक्षा ग्रहण करते हैं, भगवान राम गुरु वशिष्ठ से ज्ञान प्राप्त करते हैं। सामान्य मनुष्य से लेकर अवतार तक गुरु की आवश्यकता सबको होती है।
गुरु पूर्णिमा, गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा, गुरु पूजा और कृतज्ञता का दिन है। इस दिन परमेश्वर शिव ने दक्षिणामूर्ति के रूप में ब्रह्मा के चार मानसपुत्रों को वेदों का ज्ञान प्रदान किया था ,
मनुष्य जन्म चेतना की ऊंचाइयों को छू लेने के लिए मिला है और यह बिना गुरु के संभव नहीं है। गुरु अपने शिष्य को हर पहलू की शिक्षा देते हैं। समय-समय पर अपनी वाणी से शिष्य की उलझनों को सुलझा देते हैं। शिष्य को भी चाहिए कि एक बार जब गुरु मान लिया, तब गुरु का हाथ न छोड़े, आओ गौ , गंगा ,गीता, गायत्री और गुरु को समर्पित महान संस्कृति का संरक्षण करे, गुरुपूर्णिमा की आप सबको बहुत बहुत शुभकामनाएं, इति शुभमस्तु